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मेरी लेखन यात्रा…

उबैदुर्रहमान सिद्दीकी

 

दिल में उम्मीद ,आंखो में सपने ,आवाज़ की सच्चाई और अटल विश्वास करके राही ऐसे रास्ते पर निकल पड़ता है, जिसकी मंज़िल का तो उसे पता है पर रास्ते का नहीं. यह तो वही जाने जो कभी इस राह पर चले या कहूं कि जो अपनी मंज़िल पर पहुंचे है।1984 की बात है जब मैं एल एल बी का इलाहबाद विश्वविद्यालय का छात्र था। न लिखने और न ही सही तरीके से अपनी बात रखने का सलीका था। लेकिन तत्कालीन मेरे साथ इक ऐसी घटना घटी जिसने मुझे लेखन की तरफ मोड़ दिया और अब तक दामन चोली का साथ हो गया.

31 अक्टूबर की सुबह थी। मैं और मेरा सिख मित्र गुलमीत सिंह अहुलवालिया इलाहबाद यूनिवर्सिटी के एल एल बी प्रथम वर्ष मे क्लास लेकर बाहर निकले, यकायक शोर हुआ कि इंदिरा गांधी को उनके ही सिख सुरक्षा कर्मियों ने गोली मार दी। देखते देखते पूरे शहर में आग ज़नी होने लगी। सिखो की कई दुकानें लीडर रोड, चौक, राजापुर , मीरा रोड पर थीं, उन्हें लूटना शरू कर दिया और उनके घरों को आग लगायी जाने लगी जिसमे अपने दोस्त गुल्मीत का घर और दवा की दुकान नुरुल्लाह रोड पर थीं. अभी स्थानीय लोग कुछ सोच पाते, इतने में देखते देखते एक भीड़ आयी और उसके घर और दुकान में आग लगा गयी जिसमे मित्र गुलमीत और उसके बाप जलकर मर गए. किसी तरह मेरे मित्रों ने उसकी बूढ़ी मां और दो बहनों को खुसरू बाग़ के पास के पास स्थित गुरुद्वारे में पहुंचाया. शहर मे हर तरफ कर्फ्यू लग चुका था. अपने मित्र की इस आकस्मिक मौत तथा सिखों के घरों और दुकानों से उठते हुए धुएं और दंगाईयों पर मिलिट्री द्वारा चलाई जारही गोलियों ने मेरे जीने के नजरिए को और सोच को बदल कर रख दिया कि इंसान किस हद तक वहशी हो सकता है कि सालो सालो के आपसी मुहब्बत तथा प्यार को पल भर में तोडा भी जासकता है?

इस घटना ने मुझे अंदर से झकझोर के रख दिया और मर्माहित होकर अपने जीवन का प्रथम लेख “लीडरलेस इंडिया” स्थानीय अंग्रेजी अखबार नॉदर्न इंडिया पत्रिका मे 15 नवम्बर को प्रकाशित हुआ. अख़बार के प्रधान संपादक एस के बोस तथा संपादक वी एस दत्ता साहब थे. दोनों  का स्नेह था जिसने मुझे ल्व्की लिखने तथा विशेषकर गाज़ीपुर के विभिन्य विषयों पर लिखने के लिए प्रेरित किया। यह उनका सानिध्य एवं प्रेम था जिससे मुझे हौसला मिला उनकी उस प्रेणा थीं कि अबतक विविध विषयों पर जनपद पर मेरी 8 पुस्तके वैसे सब मिलाकर कुल 15 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी है तथा हजार से उपर लेख है।

आज लिखते समय यह सोच रहा हूं कि वे भी इलाहबाद के क्या दिन थे जहाँ मुझे उदार दिल वाले तथा सहयोगी मिले जिनके सबब लेखक बन पाया और मेरी ज़िन्दगी को एक सही माने दे गए.

अब याद आ रहा गीतों का, स्वर था जो बहुत पुराना

जिसपर भावो की क्रम संगिती, को भूल गया था लाना

कल के गीतों में जो लय था, वह अमृत से फिर पाया

उन भूले गीतों को वाणी , ने फिर सरस बनाया

वहीं स्मरण की पगडंडी , जिसको जीवन – पथ समझा

दुनियां की हर एक राह को , स्थिर व हितकर समझा

जीवन के गहरे तल से मैं , कुछ मोती कुछ मूंगे लाया

अपनेपन की चाहत में, मैंने सब को गले लगाया

कदम कदम पर स्मृतियों ने मुझे गले लगाया

 

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