दूर जाओ ना , तसव्वुर से हमको रोना है।
कसक उठी है , परेशान दिल को होना है।
उम्र गुज़री है मेरी इश्क़ के मयखाने में,
जाम-ए-उल्फ़त को इसी में हमें डुबोना है।
दरख़्त ज़िंदा है कांटा हुआ चमन इसका,
उम्मीद फिर भी है चमन-ए-बहार होना है।
हो चुकी शाम चाहतों का सहर है लेकिन,
वक्त ठहरो ज़रा दीदार उनसे होना है।
धड़कनें थम रहीं लगता नहीं मिलना होगा,
आख़िरी सांस है सुपुर्द-ए-ख़ाक होना है।
ऐसे जाना नहीं दिल तोड़ के मेरा सुन लो,
बगैर इश्क़ के ‘अनंत’ को भी रोना है।
…….. लालबिहारी शर्मा “अनंत”