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क्यों पड़ा मिश्र बाजार तथा कलक्टर घाट नाम पड़ा

उबैदुर्रहमान सिद्दीकी

गाजीपुर। मन उदास होता है तो शहर गाजीपुर की गंगा किनारे कलक्टर घाट चला जाता हूं. वहा अन्य बहुत से लोग बैठे और घूमते फिरते नजर आते हैं. उसी तरह अन्य मुहल्लों से अलग शहर का दिल कहा जाने वाला एक मोहल्ला मिश्र बाजार भी है जहां सुबह शाम गहमा गहमी देखने को मिलती है. यदि मैं कहूं कि शहर में आने का यह प्रवेश द्वार है तो शायद गलत भी न हो। मुझे शहर से संबंधित अनेक बहुमूल्य दस्तावेज स्टेट आर्काइव लखनऊ, रीजनल स्टार आर्काइव प्रयागराज, नेशनल आर्काइव दिल्ली तथा लंदन स्थित इंडिया आफिस में देखने और पढ़ने को मिले हैं. गाजीपुर के इतिहास को जानने के लिए इन स्थानों पर मेरा आना जाना हुआ है. उन्ही दस्तावेजत में, मुझे पांच सौ तिरपन (553) पृष्ठों पर आधारित एक फाइल मिली जिसके कटेलाग नंबर 1083 को  देखने को मिला, जिसमे यहां के नामचीन 100 से ऊपर हिंदू और मुसलमानो के परिवारों के पारिवारिक ब्यौरे है और जिसने उनकी वंशावली से लेकर यह लोग  किस शासन काल में कैसे पहुंचे, यहां किन पदो पर नियुक्त हुए तथा उनकी नसल कहा कहा आबाद हुई? इसमें उनकी जमीन जायदाद के संपूर्ण ब्यौरा के अलावा परिवार में यदि कोई मुख्य घटना हुई है, वह भी उसमे दर्ज है। इसी दस्तावेज के पृष्ट नंबर 41 पर शहर के एक प्रमुख ब्राह्मण परिवार का भी उल्लेख मिलता है जो बादशाह अकबर के शासनकाल में सरजू नदी के पार महुबानी से शहर के हरिशंकरी में आबाद हुआ था. उनके वंश वृक्ष के साथ जनपद में कहा कहा संपत्तियां थी, यह भी दर्ज है? डब्लू इर्विन जो चार बार थोड़ी थोड़ी अवधि के लिए जिला कलक्टर जमीनी बंदोबस्त हेतु बनकर आया था, उसने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ,”सगे दो भाई, श्रीनाथ देव तथा नारायण देव बादशाह अकबर के शासन काल में 1581 में नियुक्त गाजीपुर के फौजदार ( कलक्टर एवं एस एस पी दर्जा प्राप्त था ) पहाड़ खान बल्लौची के सदर आफिस में मुख्य धर्मशास्त्री पद पर थे तथा जिनकी देखरेख में जनपद के अधिकतर शिवालय, मठ, मंदिर तथा पुजारी दान विभाग था. इन कार्यों के एवज, उन्हे बड़ी मात्रा में कृषि भूमि मिली थी जो कर मुक्त थी. परिवार के अन्य सदस्य किन ओहदों के अतिरिक्त व्यापार में थे जिन्होंने अवधकाल से लेकर ब्रिटिश शासनकाल तक अकूत धन कमाया, यह भी इसमें है. गाज़ीपुर में इनके कुछ सदस्यों ने बैंक व्यापार में भी हाथ आजमाया जिसमे काफी धन अर्जित किया.

 

गाजीपुर के कलक्टर डब्लू इर्विन के अनुसार , उनके वंश वृक्ष में एक शिव दयाल मिश्र है, जिनके यहां बड़े पैमाने पर अफीम की खरीद फरोख्त होती थी, जिससे अकूत धन कमाया. उन्होंने मुहल्लाह हरिशंकारी में एक लाख रूपिए से अधिक धन खर्च करके बलदेव जी महाराज का भव्य मंदिर का निर्माण कराया, जहा पुजारियों द्वारा धार्मिक अनुष्ठान साल भर हुआ करते थे. उनलोगो ने श्रद्धालुओं के रहने और खाने पीने की व्यवस्था भी कर रखी थी. सर्वप्रथम इसी परिवार ने दशहरा उत्सव मनाए जाने की बुनियाद डाली थी, जहां महीने भर कार्यक्रम होता रहता था. शहर में कोई भी धार्मिक अनुष्ठान होते, परिवार के सदस्य आगे आगे रहा करता था। गाज़ीपुर में अधिकतर देखी जाए तो  अवध शैली की रामलीला काफी लोकप्रिय थी जिसमें विशेषकर, सभी भूमिकाओं में पुरुष अभिनेता ही होते, उस समय स्त्री पात्रों का निषेध था. राम लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुघन के अभिनय के लिए बारह से सोलह वर्ष के ब्राह्मण अथवा मुसलमानों में शेख सैय्यद के लड़के चुने जाते थे. उनका स्वरूप और स्वर आकर्षण होना चाहिए, जिससे वे ईश्वर के स्वरूप की कल्पना को तुष्ट कर सके. रामलीला के दिनो मे, इन स्वरूप को बड़े ही आचार व्यवहार के साथ रहना पड़ता था.इन धार्मिक अनुष्ठानों के कार्यक्रम सुचारू रूप से हो सके, मुहल्ला हरिशंकरी के ही इन ब्राह्मण परिवार वालो ने गांव सोहिलापुर तथा मुगलानी चक को दान में दे रक्खा था। देखा जाए तो दशहरा को गाजीपुर में भव्य रूप देने में, रामनगर के राजा बलवंत सिंह का बहुत बड़ा योगदान रहा है. क्योंकि गाजीपुर जनपद पंद्रह वर्षों के आसपास अधीन था. जिसतरह बनारस में दशहरा को लोकप्रिय बनाने में रामनगर के राजाओं का हाथ था, इसीलिए वहा के तर्ज पर यहां भी दशहरे उत्सव के लिए लोटन इमली और लंका दो मोहल्लों के नामकरण हुए. यहां से शाही झांकियां निकलकर लंका के मैदान में जाकर अंतिम रूप लेती.वही रावण का वध किया जाता.यह अनुष्ठान राजा बलवंत सिंह द्वारा नियुक्त प्रशासक बल्लम दास के नेतृत्व में यह धार्मिक अनुष्ठान होते. उनकी शोभा यात्रा में हर हर महादेव का सर्व प्रथम उद्घोष हुआ था। शहर में गंगा तट के अधिकतर घाट तथा घाटों परमंदिर उसी काल अथवा उसके बाद, कुछ स्थानीय धनी व्यापारी सेठों द्वारा निर्मित हुए थे. दशहरा उत्सव हेतु राजा बलवंत सिंह, राजा चैत सिंह तथा बाद के राजाओं ने शहर में बड़ी बड़ी आराजी दी थी. जिसमे एक बड़ी आराजी मौजूदा लंका मैदान की थी, जिसमे एक बड़ा नक्शा भी संलग्न है, जो प्राचीन राम लीला कमेटी के सदस्यों के पास, मैंने 30 वर्ष पूर्व देखा था। डब्लू इर्विन के दस्तावेज के अनुसार, शिव दयाल मिश्र के दो पुत्र हुए जिनके नाम कृष्ण सेवक तथा राम सेवक थे जो अपने पिताश्री के साथ बैंक सेवा तथा अफीम के कार्यों में साथ देते थे. राम सेवक की कोई संतान नहीं थी जिन्होंने अपने नाम को अमर रखने के लिए अपनी रियासत के एक तरफ एक नया मोहल्ला मिश्र बाजार बसाया: “Ram sewak missir, being childless, commemorated his name by building the mohalla or quater of the town named Missir Bazar.” उनके बड़े भाई कृष्ण सेवक जिनके चार पुत्र थे जिनमे दो जीवित रहे. उनमें बड़े पुत्र के दो बेटे बलराम मिश्र तथा घनश्याम थे और बड़े पुत्र के बेटे जिनका नाम श्रीनाथ देव था, मिश्र के बजाय पांडेय लिखना प्रारंभ किया क्योंकि उनकी माताश्री अवध शहर एक ताल्लुकदार राजघराने  के ठाकुर दत्त पंडित परिवार से थीं जो पांडेय थे जिनका ब्राह्मण कुल कश्यप था. उनके नाना ठाकुर दत्त पंडित का उस क्षेत्र में बड़ा मान सम्मान और रुतबा था क्योंकि वह संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वानों में एक थे तथा ज्योतिष विद्या तथा ज्योतिषाचार्य होने के कारण अवाम में काफी लोकप्रिय थे. जब उनकी पुत्री को कई वर्षो बाद बेटा हुआ तो बड़े पैमाने पर जश्न मनाया गया जिसमे ठाकुर दत्त पंडित का आना हुआ. उस समय मोहल्ला हरिशंकरी के पास जो गंगा तट था वहां कोई घाट नही था जिसपर उन्होंने पांच सौ रूपिये से पत्थरों द्वारा पक्के घाट का निर्माण कराया जिसका उद्घाटन तत्कालीन कलक्टर थारनहिल ने किया था जिसका नामकरण थारनहील घाट से हुआ जो आज कलक्टर घाट से लोकप्रिय है। “Thakur Datt Pandit subscribed Rs. 500 towards the expenses of constructing the Stone Ghat in the Ghazipur city known as the Collector’s or Thornhill ghat…” ( British Library, London Archive, Cat.No.4047) ठाकुर दत्त पंडित को  सामाजिक कार्यों में अग्रिम भूमिका निभाने के कारण लंदन से 400 रुपिया की एक मंहगी घड़ी गाजीपुर के कलक्टर थारनहिल ने भेंट में दी थी. ठाकुर दत्त पंडित का देहांत 1872 में हुआ. हरिश्नकारी मुहल्ले में अनेक ब्राह्मण परिवार आज भी हैं जिनका संबंध इसी विशिष्ट वंश वृक्ष की शाख से है और कुछ तो ब्रिटिश काल में,  बनारस, कानपुर, प्रयागराज, कालपी, बांदा, आगरा आदि स्थानों में जा बसे हैं।

 

 

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