गाजीपुर। एक ऐसे शहर के बारे में लिखना जिसका इतिहास गुमनामी में हो , बड़ा पेचीदा और मुश्किल काम होता है. सब से बड़ी बात कि जनपद में अधिकतर लोगो के पास किवदंतियों, मान्यताओं, कहानियों तथा कथाओं की भरमार है. और जिसे जनमानस इतिहास समझ कर सच मान बैठा है, जोकि सच नही है. पुस्तक को लिखने के समय तिल तिल मरता रहा, हताश होता रहा, न उम्मीद होता रहा है , टूटता रहा , बिखरता रहा, रास्ते में तरह तरह की दुश्वारियां आती गईं, तकलीफ भी हुई और घोर निराशा में डूबा भी, कुछ से उम्मीदें पाली लेकिन उनसे निराशा हाथ लगी. ….. कभी फारसी से , कभी अरबी से, कभी हिंदी या अंग्रेजी के अनुवाद को लेकर की कैसे लिखा जाए , किस तरह वाक्यों में ढाला जाए ? इक दो के अलावा कोई साथ खड़ा नही हुआ …समझ में यही आया कि लेखन जगत में लोग आहिस्ता आहिस्ता दिल और दिमाग के साथ सिकुड़ा गए है? जो ऊपर से दिखता है न, वो वैसा अंदर से नही रहत! बीमार पड़ता रहा, समय समय यह महसूस हुआ कि अब यह आखरी सांस है….. कुछ दिन मरता और जिंदा हो जाता, उसी में लिखता जाता, लहरों में लहराता रहता, डूबता रहा, तैरता रहा, मोतियां और नगीने तलहटी से निकालता रहा. इनपर पालिश कर के उन्हे सवारता रहा. नए रूपो में उन्हें ढालता रहा. जनपद से संबंधित साहित्यिक एवं तारीखी पांडुलिपियायों को तलाश कर खूब निकाला, सदियों से धूल धक्कड़ से अटी पुटी को पढ़ना और फिर अपने मतलब की चीजों को निकालना , एक निहायत मुश्किल दौर से गुजरता रहा..देश विदेश की लाइब्रेरियों तथा वहा रखी हुई फटे पुराने कागजात पर की धुलो को धूल साफ कर पन्नो से मतलब को निकालता रहा. जिनकी संख्या हजारों और लाखों में थी. ऐसे में क्या अपने जनपद के अतीत को निकाल कर पन्नो पर बिखेरना कोई बहुत आसान रास्ता न था बल्कि बहुतों में, मैं कामयाब भी हुआ. और कुछ में नाकामी भी मिली! इस पुस्तक को किताब के रूप में ले आने के लिए लगातार चार साल जागता रहा , उन्हे लिखकर काटता रहा. सुधार लाता रहा, इस लेखन यात्रा में शहर एक दो के अलावा, ऐसा एक आदमी नही मिला जो थोड़ा भी मदद करे. किसी बिंदु पर बात चीत करना चाहूं भी तो उनके पास समय नहीं था ……. इस नतीजे पर आया कि यह जमीन बहुत तेजी से ढलान पर चली जा रही है. जो शहर अपनी साहित्यिक छवि से जाना जाता था,वहा अब अंगारे और बबूल उगते दिख रहे हैं. निश्चित आने वाले समय में लेखकों और साहित्यकारों के हाथों में कलम की जगह बल्लम, बरछी होगी. जो एक दूसरे को चीरते फिरते मिलेंगे! मैने यह पुस्तक देश विदेश के डिग्री कॉलेज, विश्विद्दालयों तथा शोध संस्थानों के छात्रों को निगाह में रख कर लिखा है. क्योंकि वे अभी भी अच्छी किताबे शोध कर के लिख रहे हैं, चूंकि अंग्रेजी भाषा ऐसे है, जो आम नही है!
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