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अवध काल से प्रसिद्ध है गाजीपुर की होली- उबैदुर्रहमान सिद्दीकी

गाजीपुर। आम हो या खास होली पर्व हमेशा से सभी का पसंदीदा त्यौहार रहा है. इसे समाज का हर वर्ग जबरदस्त उत्साह ढोल नगाड़ों के बीच विविध रंगों की छटा बिखेरता, हुडदंग, चुहलबाजियों और मस्ती भरी छेड़छाड़ के किसी भेदभाव के मनाते चला आरहा है. अवध काल में, नवाब नवाब फजल अली, जो गाजीपुर का इजारादार ( रेवेन्यू कलक्टर) था, शहर में कई दिनों तक होली का जश्न मनाता था. वह सपरिवार खुद उत्साह से होली खेलता बल्कि अपनी बेगमात को भी होली खेलने से नही रोकता था. नवाब तो बांस की पिचकारी से अपने दरबारियों पर रंग फेंका करता था. उसकी पुलिस छावनी जो नवाबगंज के किले से उत्तर पूर्व स्थित मौजे धावा, नूरपुर, हुंदरही, खालिसपुर में थी, वहा होली खेली जाती. फाग गीत गाए जाते और गले मिलकर एक दूसरे सैनिकों को गुलाल अबीर लगाए जाते और होली की मुबारकबाद दी जाती.

 

नवाब फजल अली के जीवनी लेखक लाला अमरनाथ ( फतुह जमानी, फारसी पांडुलिपि, पृष्ट 87 ) उल्लेख करते है कि ” इजारादार फजल अली की हकुमत के दौरान (1745 _ 1762) होली के पर्व पर चौधरी अजमल (जागीरदार जमानिया ) जमींदार सुब्बन सिंह, जमींदार, राय अनूप सिंह, राजमोहन चंद्रावत राय की जागीरदारी में जाकर रंग पर्व का आनंद उठाते थे, जिसमे मीर हसन अली और मीर मुहसिन खान जो शहर के मुस्लिम जागीरदार थे, साथ जाते और बड़े जोश से होली खेला करते.” आगे लाला अमरनाथ लिखते है, ” अफगानी जो सेना में थे, वे भी अपने हिंदू फौजियों के हमराह होली समारोहों में जोश ओ खरोश से शामिल होते थे.” शहर के मुहल्ले विशेषकर रायगंज, झुन्नूलाल चौराहा, हरि शंकरी, उर्दू बाजार, नवाबगंज, टेढ़ी बाजार, गोसाईंदासपुरा की होली बड़ी लोकप्रिय थी जहां विभिन्न रंगों से लबालब भरे हौदों होते जिनमे रंगों के अलावा केवड़े और केसर से मिश्रित टेसू का रंग घोला जाता और लोग चांदी, पीतल, तांबे और लकड़ी की बड़ी बड़ी पिचकारियों में भर कर रंग फेंकते थे. कुछ तो भांग की मस्ती से सराबोर होकर उन हौदो में कूद जाते या अन्य को उसमे धकेल दिया जाता. सायंकाल में एक दूसरे के सर पर गुलाल लगाई जाती, होली की एक दूसरे को मुबारकबादी देने घर जाते और साथ इत्र भी मलते. अपने अपने घरों, कोठियों तथा हवेलियों में केवड़े, गुलाब इलायची, केसर, पिस्ता, बादाम से उम्दा ठंडाई बनवाई जाती जो बड़े ड्रामों में भरी होती थी. तरह तरह की मिठाइयों आदि के साथ आने वाले महमानों की जमकर खातिरदारी होती थी. इनके अलावा रात में ” महफिल ए होली ” तवायफों के मुजरो से सजती, जिनकी शहर में उस समय एक बड़ी आबादी थी. वहा जमकर गुलाल उड़ते और लोगो पर यह कहकर फूलों की बौछार की जाती कि ” क्यों मो पै मारी रंग की पिचकारी, देखो कुंवर जी मैं दूंगी गाली”. होली में आम लोग फाग गाने वाले चंग, नफीरी, मुहचंग, डफली, मृदंग, धमधमी, ढोलक, बीन, रबाब, तमुरा, डफ, झींका, करताल एवं तबला आदि बजाकर सरल और अश्लील लोकगीतों का बेहिचक गाते थे. नालियों के कीचड़ उछालकर फेंकते और तारकोल चहरों पर मलते . अश्लील गालियों की भरमार रहती और भांड तो होली के मौके पर कुछ भी कहने या गाने के लिए गली गली घुमा करते थे:

“आ हो भौजी

तोरा नइहरवा कुँआरी बहिनिया भौजी

कह त गवना करा के लेइ आईं”

सैदपुर और मुहम्मदाबाद की लठमार होली बहुत लोकप्रिय थी. उस दिन एक टोली को दूसरे टोली के लठ से बचकर आगे बढ़ना पड़ता था तथा महिलाएं उनपर रंग और गुलाल छिड़का करती थी. उनमें कुछ को तो महिलाओं के कपड़े पहनाकर श्रृंगार आदि करके नचाया भी करते थे. मान्यता यह थी कि पौराणिक काल में श्रीकृष्ण भी गोप बने थे और उन्हे भी गोपियों ने नचाया था. आपसी वार्तालाप के लिए ” होरी” गाई जाती जो श्रीकृष्ण और राधा के मध्य वार्तालाप पर आधारित होती. यहां जो भी रंग और गुलाल  का प्रयोग किया जाता, वे प्राकृतिक होता था, जिससे माहोल बहुत ही सुगंधित रहता था।

 

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