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26 वर्ष के अथक तपस्या का फल है प्रोफेसर आनंद कुमार‍ सिंह की कृति “अथर्वा मैं वही वन हूं”

गाजीपुर। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रोफेसर आनंद कुमार सिंह को “अथर्वा मैं वही वन हूं” नामक काव्य कृति के लिए पुस्तकों को दिए जाने वाले महाकाव्य विधा में सर्वोच्च सम्मान “तुलसी नामित पुरस्कार” से सम्मानित किया गया। प्रोफ़ेसर आनंद सिंह ने इस कृति की रचना में 26 वर्ष लगाए। यह कृति भारत के पुरातात्विक इतिहास, वैदिक एवं उत्तर वैदिक इतिहास एवं संस्कृति, प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास तथा संस्कृति के गलियारों से गुजरती हुई आधुनिक कालीन इतिहास की विडंबना को अपने वृहत्तर परिवेश में समाविष्ट कर लेती है। यह खड़ी बोली नई कविता की अनेकानेक विशेषताओं को प्रकाशित करने वाली महाकविता है। कवि ने इस कृति के माध्यम से समकालीन हिंदी कविता को वैश्विक चेतना से इस तरह जोड़ा है कि उसमें परंपरा और आधुनिकताबोध के साथ-साथ मनुष्य की आत्मिक खोज के प्रश्नों के व्यवस्थित समाधान की ओर भी संकेत किया जा सके। इसकी शैली महाकाव्यों वाली है जिसमें आधुनिक काल की बौद्धिकता को मनुष्य की मनोवैज्ञानिक चेतना से भी जोड़ने का यत्न किया गया है।  अशोक बाजपेई जैसे महत्वपूर्ण कवि एवं चिंतक ने इस पुस्तक के विमोचन के अवसर पर कहा था कि इस पुस्तक की एक प्रशस्ति यह भी हो सकती है कि यह कविता और भाषा को वहां पहुंचाने का काम करती है जहां पिछले 50 वर्षों में हिंदी कविता और भाषा दोनों ही नहीं गए थे। प्रोफेसर आनंद सिंह ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत 90 के दशक से की और भारतीय परंपरा और आख्यान तथा आध्यात्मिक प्रतीकों को लेकर उन्होंने “गणपति आकल्ट”, “शक्ति आकल्ट” और “शिव आकल्ट” नामक प्रारंभिक पुस्तकों का सृजन किया। ये पुस्तकें अंग्रेज़ी, हिंदी और संस्कृत के साथ-साथ गुजराती भाषा के सौंदर्य से भी युक्त हैं। प्रोफेसर आनंद सिंह ने हिंदी में पर्यावरणीय कविता का सूत्रपात करते हुए नर्मदा नदी तथा अन्य नदियों के प्राकृतिक सौंदर्य तथा आधुनिक कालीन पर्यावरणीय विडंबनओं को ध्यान में रखकर “सौंदर्य जल में नर्मदा” नामक काव्य पुस्तक का सृजन किया था। इसके माध्यम से उन्होंने भारतीय कविता की पारंपरिक शक्ति को प्राकृतिक सौंदर्य और आधुनिक कालीन प्रदूषण से मिलाकर देखा और उसके चेतना प्रवाह को भाषा में संस्कारित करने का सुंदर प्रयत्न किया। आनंद की शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली पुस्तक “विवेकानंद” एक छंदात्मक लंबी कविता है जो स्वामी विवेकानंद के देहावसान के 120 वर्षों बाद लिखी गई है। एक प्रकार से यह भी कहा जा सकता है स्वामी विवेकानंद पर हिंदी की यह पहली व्यवस्थित और सुदीर्घ कविता है। इसकी विशेषता यह भी है कि यह ठीक उसी छंद में सृजित हुई है जिसमें महाप्राण निराला ने “तुलसीदास” नामक लंबी कविता का  सृजन किया था। आनंद की एक और प्रकाश्य पुस्तक “समुद्र सौंदर्य की ही प्यास है” भारतीय कला साधना के अनेक आयामों का स्पर्श करती है। उन्होंने विद्यार्थी काल से अंग्रेजी साहित्य, बांग्ला साहित्य तथा संस्कृत साहित्य के अनेक कवियों की कविताओं का हिंदी कविताओं में अनुवाद भी किया है जो “शिवमहिम्न” तथा “सौंदर्य लहरी” के काव्य- अनुवाद के रूप में सामने आ चुके हैं। आनंद जी कवि होने के साथ-साथ अपने प्राध्यापकीय कर्म के कारण आलोचना में विशेषकर कविता की आलोचना में योगदान देने के लिए भी प्रशंसित और पुरस्कृत हो चुके हैं। उनकी पुस्तक “सन्नाटे का छंद” आलोचना की सर्वमान्य पुस्तकों में से एक है जो कवि अज्ञेय के प्रेम, प्रकृति और समाज से संबंधित काव्य-अनुभवों को अत्यंत गहराई से उद्घाटित करती है। इस पुस्तक को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार, स्पंदन आलोचना सम्मान, मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन भोपाल तथा प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचना सम्मान से पुरस्कृत किया जा चुका है। अभी हाल ही में मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी ने “अथर्वा मैं वहीं वन हूं” पर अखिल भारतीय अटल बिहारी बाजपेई पुरस्कार घोषित किया है। इस कृति पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति हिंदी भवन भोपाल की पत्रिका अक्षरा ने अपना मई का विशेषांक निकाला है जिसमें देश के अत्यंत महत्वपूर्ण आलोचकों ने अथर्वा पर अपने अत्यंत महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। अथर्वा के महत्व का एक प्रमाण यह भी है कि मध्य प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल के 5 विश्वविद्यालयों में “अथर्वा” पर शोधार्थी पीएचडी करने के लिए पंजीकृत हो चुके हैं। यह अथर्वा की लोकप्रियता का एक अकादमिक प्रमाण भी है। पुस्तक की भाषा क्लासिक और शैली कठिन होने के बावजूद यह विद्यार्थियों और अध्यापकों में पर्याप्त लोकप्रिय हुई है।

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