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गाज़ीपुर की रामलीला तथा हरिशंकारी का ब्राह्मण परिवार………..

उबैदूर्रहमान सिद्दीकी

गाजीपुर। रामलीला का मंचन तथा दशहरा उत्सव गाज़ीपुर शहर मे बलवंत सिंह (सन १७४० से १७७० तक) काशी राज्य के नरेश से प्रारम्भ हुआ. इसके जनक हरिशंकारी का एक कुलीन ब्राह्मण परिवार है. पासर्व मे बलदाऊ जी का भव्य मंदिर है जिससे अनेक इतिहास के पन्ने जुड़े हुए है. देखा जाये तो गाज़ीपुर की अति प्राचीन रामलीला कमेटी के पास इसके अभिलेख मय नक़्शे के है. वैसे बड़ी संख्या मे शहर के साथ जनपद के अन्य स्थानों पर कमेटी को इसके प्रयोजन हेतु भूमि दान मुक्त मिली थीं. कुछ भूमि पर कब्ज़ा लोगो का होने के कारण गाज़ीपुर के सिविल नियालय मे वाद विवाद मे रामलीला कमेटी के कई बहुमूल्य कागज़त जमा है. मैं इसलिए जानता हूं क्यूंकि मेरे पिताश्री अख्तर उस्मान अतिप्राचीन कमेटी की तरफ से 1980 से 1999 तक दीवानी अदालत मे वकील रहे है. रामलीला के मंचन मे रामनगर के राजा बलवंत सिंह तथा अन्य राजाओं ने बढ़ – चढ़कर हिस्सा लिया था क्यूंकि उनके अधीन गाज़ीपुर शहर के अतिरिक्त बनारस, जौनपुर, मिर्ज़ापुर तथा आजमगढ़ जनपद थे. बनारस की तरह यहाँ भी यादगार के तौर पर लोटन इमली तथा लंका मोहल्ले आबाद हुए, जहाँ यह उत्सव होते थे. मठ सरय्या मौधा, परागना खानपुर की कई दिनों तक चलने वाली रामलीला राजा रामनगर की रामलीला से कोई कम नहीं थीं. सभी भूमिकाओं मे बालक तथा पुरुष होते  थे, स्त्री पात्रों का निषेध था. राम, लक्ष्मण, सीता, भरत, शत्रुघन के अभिनव के लिए बारह से सोलह वर्ष के ब्राह्मण लड़के चुने जाते थे. जनपद तथा दशहरा से संबंधित हमें बहुमूल्य दस्तावेज रामनगर बनारस के संग्रहालय के अलावा लन्दन की ब्रिटिश लाइब्रेरी मे 553 पृष्टों पर आधारित फाइल नंबर 1083 देखने को मिली जिसमे जनपद के लगभग 120 नामचीन हिन्दू मुस्लुम परिवारों का इतिहास है कि किस के शासन काल में कौन कौन परिवार आया और जनपद में किन पदों पर रहे ? इसमें उनकी जमीन जायदाद का ब्यौरा भी दिया गया है. यदि कोई घटना उनके साथ हुई है, वे भी इसमे दर्ज है. इसे गाज़ीपुर के कलक्टर डब्लू इर्विन ने 1880-81 मे तैयार किया है. दस्तावेज के पृष्ट नंबर 41 पर शहर के मोहल्ला हरिशंकारी के ब्राह्मण परिवार का भी उल्लेख है. डब्लू इरविन लिखता है कि, बादशाह अकबर के शासनकाल में सरजू नदी के पार महुबन से एक ब्राह्मण परिवार शहर के हरिशंकरी में आबसा था. वे सगे दो भाई श्रीनाथ देव तथा नारायण देव थे जिन्हे बादशाह द्वारा गाजीपुर के फौजदार ( कलक्टर एवं एस0एस0 पी0 दर्जा प्राप्त ) पहाड़ खान बल्लौची के सदर आफिस में धर्मशास्त्री पद पर नियुक्ति मिली तथा उनकी देखरेख में यहाँ के शिवालय, मठ, मंदिर तथा  दान विभाग थे . इस कार्य के एवज उन्हे जनपद मे बड़ी बड़ी आराज़िया जनपद मे मिली, जो कर मुक्त थी. आगे डब्लू इर्विन लिखता है, “उनके वंश वृक्ष में एक शिव दयाल मिश्र हुए है, जिनके यहां बड़े पैमाने पर अफीम की खरीद फरोख्त होती थी जिनसे उन्होंने अकूत धन कमाया. उन्होंने ही शहर में बैंक व्यापार की भी शुरुआत की थी. इस सफलता पर उन्होंने मुहल्लाह हरिशंकारी में एक लाख रूपिए से अधिक धन खर्च करके बलदेव जी महाराज का भव्य मंदिर निर्माण कराया जहाँ पुजारियों द्वारा धार्मिक अनुष्ठान साल भर चला करते थे. श्रद्धालुओं के रहने और खाने पीने की व्यवस्था भी थी. शिव दयाल मिश्र के दो पुत्रों मे एक रामसेवक थे जिनके कोई पुत्र न होने कारण अपने नाम को अमर रखने के लिए शहर मे एक मोहल्ला मिश्र बाजार बसाया. इस मिश्र परिवार मे एक ठाकुर दत्त पंडित हुए है,जिन्होंने गाज़ीपुर के कलक्टर थोरन्हिल के नाम पर झूंन्नूलाल चौराहा के पास गंगा तट पर पक्का घाट बनवाया जो आज कलक्टर घाट से लोकप्रिय है. उसी समय सर्वप्रथम मोहल्ला हरिशंकारी मे रामलीला मनाए जाने की बुनियाद पड़ी, जहां एक उत्सव के रूप मे महीने भर कार्यक्रम चलता रहता था. इस अवध शैली की रामलीला में विशेषकर, सभी भूमिकाओं में बारह से सोलह वर्ष के खूबसूरत ब्राह्मण के अतिरिक्त मुसलमानों में शेख सैय्यद के लड़के चुने जाते थे. उनका स्वरूप और स्वर आकर्षण रहता , जिससे वे ईश्वर के स्वरूप की कल्पना को तुष्ट कर सके. रामलीला के दिनो मे, इन स्वरूप को बड़े ही आचार व्यवहार के साथ रहना पड़ता था.इन धार्मिक अनुष्ठानों के कार्यक्रम के खर्चे हेतु, हरिशंकारी के इस ब्राह्मण परिवार ने गांव सोहिलापुर तथा मुगलानी चक को दान में दे रक्खा था. वैसे अब इस परिवार की कई शाखाएं है जो स्थानीय लोगों के अतिरिक्त अतिप्राचीन कमेटी से मिलजुल कर मनाते चले आ रहे है. गाज़ीपुर के दशहरा को भव्य रूप देने में, रामनगर के राजा बलवंत सिंह तथा राजा चेत सिंह का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. जिस प्रकार बनारस का दशहरा प्रसिद्ध है,उसी तरह दशहरे के लिए लोटन इमली और लंका दो मुहल्ले नामकरण हुए. अवधकालकाल मे रामलीला की झांकियां लोटन इमली से निकला करती थीं तथा लंका के मैदान में आकर रावण का वध होता. राजा बलवंत सिंह के तत्कालीन स्थानीय प्रशासक बल्लम दास थे जिनके नेतृत्व में धार्मिक अनुष्ठान अदा किये जाते थे. इसके लिए अलग से एक सरकारी कोष नियुक्त था. इस शोभा यात्रा में प्रथम बार काशी की रामलीला की तरह यहाँ भी हर हर महादेव के उद्घोष की नीव पड़ी. कुछ दिन पहले गाज़ीपुर की अति प्राचीन रामलीला कमेटी की तरफ से एक प्रेस विज्ञप्ति 1884-85 के हवाले से रामलीला तथा तज़ियादारान के मध्य हुए समझौता पत्र का उल्लेख किया गया था, जो कि सही नहीं है बल्कि यह समझौता पत्र 18 सितंबर 1909 का है जिसमे लिखा गया है कि रामलीला की सभी झाँकियां मकबरा पहाड़ खान महुआबाग़ से उठकर डाक्टर मुख़्तार अहमद अंसारी मार्ग जो तत्कालीन नेवील रोड होती थीं, से होकर झूंन्नू लाल चौराहा, महाजन टोली, सैयद वाड़ा होकर स्टीमर घाट जाया करेंगी तथा जो मुख्य मार्ग मिश्र बाजार, लाल दरवाजा, टाउन हाल, स्टीमर घाट है, उसको रामलीला कमेटी अथवा ताजियादरान किसी भी तरह से प्रयोग मे नहीं लाएंगे. यदि कोई अवहेलना करता है तो उसके विरुद्ध करवाई होंगी. इस समझौता पत्र को जो तत्कालीन कलक्टर के बँगले पर तैयार किया गया था, रामलीला कमेटी के पक्षकारों की तरफ से 12 तथा तज़ियादारान पक्षकार के 12 के नाम मय दस्तखत के मौजूद है और ये सभी 24 लोग जनपद के माने जाने जमींदार थे.इस कमेटी मे तज़ियादारान की तरफ से हमारे घर के दो लोग अब्दुल अजीम साहब वकील तथा शेख अमीनुल्लाह वकील म्युनिसिपल कमिश्नर के नाम मय दस्तखत मौजूद है. उल्लेखनीय है कि तत्कालीन 1909 के ब्रिटिश रिकार्ड्स मे जनपद के अलग अलग स्थानों पर जो रामलीला का मंचन किया जाता था तथा दशहरा उत्सव स्थानीय रामलीला कमेटीयों द्वारा होता था तथा इस त्यौहार की तैयारियां बड़े ज़ोर शोर से कई दिनों से पहले से होना शरू होजाती थीं, जैसे, शहर के लंका मैदान मे दशहरा अश्विन शुक्ल की 10 तारीख जिसमे श्रद्धालू 15,000 के करीब आते थे. उसी दिन गांव पलिया मे दशहरा मनता था जिसमे लगभग 3,000 श्रद्धालू शामिल होते थे. सैदपुर की रामलीला मंचन पूर्वांचल मे लोकप्रिय थीं जो अश्विन शुक्ल की 10 तारीख को मनाई जाती थीं जिसमे श्रद्धालु लगभग 20,000 के आते थे. जखनिया गोविन्द की रामलीला मे लगभग 5,000 श्रद्धालू शरीक होते थे तथा जलालाबाद मे भी इतने ही श्रद्धालू रामलीला के जश्न मे शरीक होते थे. वैसे मुहम्मदाबाद के दशहरा मे 4,000 लोग आते थे तथा उतने ही बालापुरा के दशहरा को देखने आया करते थे. मुहम्मदाबाद के परसा गांव मे 5,000, राजापुर मे 3,000, मनिया उर्फ़ सकला खुर्द गांव मे 4,000 तथा क़ासिमबाद मे श्रद्धालू लगभग 3,000 के शामिल होते थे. देखा जाये तो शेरपुर तथा गहमर की रामलीला मे श्रद्धालू लोग 4,000 के करीब आते, रेवतीपुर मे 3,000 तथा10,000 के करीब लोग दिलदारनगर मे आते थे. रामलीला तथा दशहरा से सम्बंधित एक दुर्लभ दस्तावेज “बलवंतनामा” फ़ारसी का उल्लेख करना चाहूंगा जो राजा रामनगर के राजाओं तथा उनके दरबार पर आधारित पुस्तक है, जिसमे गाज़ीपुर के नवाबों मे शेख अब्दुल्लाह तथा फज़ल अली के बारे मे भी दर्ज है. उसमे नवाब फज़ल अली गाज़ीपुर मे कैसे दशहरा उत्सव मनाता था, ज़िक्र किया गया है. लाला रामगोविंद सिंह लिखते है, “नवाब बड़े उल्लास से दशहरा मनाता था. उस दिन हिन्दू के साथ साथ मुस्लमान भी नीलकंठ के दर्शन के लिए शहर के अलग अलग मंदिरों के अलावा अन्य स्थानों पर जाते थे,खासकर शहर कोतवाल अपने घोड़े तथा हाथियों को मेहंदी और दूसरे रंगों से रंगवाकर, फूल मालाओ से सजाकर अपने सैनिक दस्ते और सम्मानित पदाधिकारियों के साथ नीलकंठ के दर्शन करते थे. शाम के समय देसी नाच गाने की महफिले होती थीं. उस दिन मुस्लिम बच्चे भी हिन्दू बच्चों की तरह टेसू राय की सूरत बनाकर और उसे लकड़ी पर लिटाकर शाम के समय भक्ति गीत प्रतिदिन गाते हुए दरवाज़े दरवाजे जाकर पैसे मांगते थे जो इकट्ठा होता, खास दशहरा के दिन मिठाई खरीदकर आपस मे बाँट कर खाते थे.”

 

 

 

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