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स्‍वामी विवेकानंद के अध्‍यात्मिक गुरू संत शिरोमणि स्‍वामी पवहारी बाबा का विधि-विधान से मनाया गया निर्वाण दिवस

गाजीपुर। संत शिरोमणि स्‍वामी पवहारी बाबा का निर्वाण दिवस विधिवत पूजा-पाठ कर मनाया गया। इस अवसर पर विशाल भंडारा का आयोजन किया गया। जिसमें सत्‍यदेव ग्रुप आफ कालेजेज के प्रबंध निदेशक डॉ. सानंद सिंह ने अपने टीम के साथ भाग लिया। डॉ. सानंद सिंह ने संत शिरो‍मणि पवहारी बाबा के समाधि स्‍थल पर माल्‍यापर्ण किया और कहा कि 18वीं शताब्‍दी के महान संत पवहारी बाबा को स्‍वामी विवेकानंद जी ने अपना अध्‍यात्मिक व मानसिक गुरू बनाया था। उन्‍होने बताया कि यह वर्ष  1890 की शुरुआत थी ,जब 27 वर्षीय परिव्राजक स्वामी विवेकानंद जी को गाजीपुर मे,अपनी कुटिया मे घुसे चोर को स्पर्श कर एक उच्च स्तर के संत मे परिवर्तित कर देने वाले,एक काले नाग द्वारा डसे जाने पर भावस्थ हो जाने वाले,वर्षो वर्ष अपनी बंद कुटिया मे सिर्फ पवन के आहार पर समाधिस्थ रहने वाले एक दैवीय पुरुष पवहारी बाबा के बारे मे पता चला। चैतन्य महाप्रभु के बाद ये तृतीय महापुरुष थे जिन्होंने समाधिवस्था   को लब्ध किया था,प्रथम आन्ध्रा के  त्रैलंग स्वामी जिन्होंने अपने प्रकाश से काशी को तीन शताब्दियों तक प्रकाशित रखा,द्वितीय स्वयं स्वामी जी के गुरु भगवान श्री रामकृष्ण परमंहस देव ,और तृतीय ये गाजीपुर के संत स्वामी पवहारी बाबा स्वामी विवेकानंद जी ने पुनः इसको अपना आध्यामिक, मानसिक गुरू के स्वरूप में वरण किया ।।उनसे मिलने की सद्इच्छा लिए स्वामी विवेकानन्द जी मुगलसराय,दिलदारनगर, होते हुए ताडीघाट पहुंचे, शरद ऋतु में ठंड और भूख प्यास से व्याकुल स्वामी विवेकानंद जी अभी मन में कुछ विचार ही कर रहे होते की तत्छड वहा अलौकिक छवि वाले एक संत हाथ में भोजन की थाल लिए , विवेकानंद जी के सामने भोजनग्रहण करने का आग्रह किया, और उनको भोजन करवा के तृप्ति करने के बाद वहा सेअदृश हो गए,नाव से गंगाजी पार कर विवेकानंद जी गाजीपुर नगर मे 21जनवरी 1890 के दिन आ पहुंचे।और अगली सुबह ही नगर से दो मील की दूरी पर स्थित इस कुटिया पर उपस्थित हुए।भंयकर ठण्ड पड रही थी,वो बाहर प्रतीक्षा करने लगे।सुबह दोपहर बन कर संध्या होने को आयी पर संत की समाधि भंग न हुई।स्वामी जी को निराश नगर को लौटना पडा।स्वामीजी ने 28 फरवरी को अपने प्रिय मित्र प्रमदादास को कलकता में पत्र लिखा,”इनसे भेट होना अत्यंत कठिन है,वे बाहर ही नहीं निकलते,चारों तरफ अंग्रेजो की छावनी नुमा ऊंची दिवाले है,अन्दर बगीचाहै,..वहां जाकर पुरे दिन बैठा बैठा सर्दी की मार खाकर लौटा हूं,मिलने का प्रयास कब तीन महीने में परिवर्तित हो गए पता ही नही चला

फिर भी प्रयत्न कंरूगा”

स्वामी जी साक्षात शिव के अंश थे और वो स्वयं द्वार आये थे ,पवहारी बाबा ने स्वामी विवेकानंद के पात्रता की परीक्षा लेते हुए,समाधि से बाहर आए और उनसे मिल कर स्वामी जी परम प्रसन्न हुए,उनके स्वयं के शब्दों मे,”बडे भाग्य से बाबाजी से साक्षात्कार हुआ।वास्तव मे वे एक महापुरुष हैं।बडे आश्चर्य की बात है कि इस नास्तिकता के युग मे ,भत्ति एवं योग की अद्भुत क्षमता के वे अलौकिक प्रतीक हैं।…इतनी मिठी वाणी मैंने कहींनहीं सुनी।वे प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं देते बल्कि कहते हैं,दास क्या जाने परन्तु बात करते करते मानों उनके मुख से अग्नि के समान प्रखर वाणी निकलती है।..ऐसे महापुरुषों का साक्षात्कार किये बिना शास्त्रों पर पूणर्तः विश्वास नहीं होता।”कुछ दिन इन महापुरुष से मिल कर,  स्वामी जी को इनसे राजयोग,  हठ योग की दीक्षा लेने का विचार उठा।और जिस गंभीर रात्रि मे उन्होंने ये संकल्प लिया,क्या देखते हैं भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव अश्रुमुख उनके समक्ष प्रकट हैं,स्वामी जी को अभी भारत के हित मे, पुरे जगतहितार्थ बहुत से कार्य करने को बाकी था, स्वामी जी भी समाधिस्थ रहने लगेगें  तब….!!!”स्वामी विवेकानंद जी के अटल हठ पे स्वामी पवहारी बाबा ने उनकी अपूर्ण शिक्षा, और मन के कौतूहल को शांत किया, पवहारी बाबा अपने सिद्धांत अनुसार विवेकानंद जी से दरवाज़े के ओट से ही वार्ता करते थे,अपने को दास और दूसरे को बाबा से संबोधन बाबा जी के सिद्धांत थे, विवेकानंद जी जब बाबा जी के वाणी से प्रभावित हुए तो मन में बाबा जी से दीक्षा लेने और दर्शन करने का विचार बनाया, हठ योग पे बैठे, विवेकानंद जी को एक दिन अपने सगे बड़े भाई गंगा तिवारी जी को ,जिनको बाबा जी ने अपने ग्राम जौनपुर से आश्रम पे आए आगंतुकों के सेवा भाव के लिए बुलाया था,  उनसे कह के विवेकानंद जी को अपने पास बुलवाया, और हठ योग पे बैठे विवेकानंद जी से इसका कारण पूछा,तो विवेकानंद के आग्रह पे बाबाजी ने कुछ पल के लिए दरवाज़ा खोल के उनके मन के कौतूहल को शांत करने के उद्देश्य से सामने आए , प्रथम दृष्टया स्वामी विवेकानंद जी को उनके गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के स्वरूप में फिर स्वयं के स्वरूप में दर्शन देते हुए ,दरवाजा बंद करने के बाद बाबाजी ने विवेकानंद जी से पूछा क्या हुआ नरेंद्र बाबा आपने दास के दर्शन प्राप्त किए, विवेकानंद जी आश्चर्यचकित शब्दों में कहा हमने तो यहा अपने गुरुदेव को यहां पाया, उनके भावनावो को समझ पवहारी बाबा ने बोला जब मुझमें और रामकृष्ण परमहंस बाबा में कोई अंतर नही ,तो फिर गुरु बदलने की इच्छा आपके मन में कहा से जागृति हुईं, विवेकानंद जी अब पवहारी बाबा की बातो को समझ चुके थे ,फिर उन्होंने कहा बाबा जी आप तो वही दिव्य संत है, जो मुझे भूख प्यास से व्याकुल देख भोजन कराया था, पवहारी बाबा हंसते हुए, कहा दास को तो आपकी व्याकुलता देखी नही गई,तो माता गंगा से भोजन की विनती की तो माता जी ने प्रसाद दिया,हमने आपको प्रसाद ग्रहण करा दिया , साढ़े तीन माह इनके दिव्य संग मे रहने के बाद स्वामी जी यहाँ से चले गये।तीन वर्ष बाद 1893 को ही वो विश्व प्रसिद्ध हुए।स्वामीजी की वाणी ने भारत की स्वतंत्रता आदोंलन की पवित्र अग्नि को प्रज्वलित किया।नेहरू जी,महात्मा गांधी,सुभाषचंद्रबोष आदि असंख्य सेनानियों ने उनसे प्रेरणा पायी, इसे खुले मन से स्वीकार किया। पर स्वामी जी अपने छोटे से पुरे जीवन काल मे ,पवित्रता नम्रता व प्रगाढ प्रेम की इस जीवन्त दैवीय मूर्ति पवहारी बाबा  को कभी न भूले ।उनके रोमांचक ब्रम्हलीन होने की सूचना उनके मित्र गगनचंद्र चटर्जी के पत्र माध्यम से (जिनके यहा स्वामी जी गाज़ीपुर प्रवास के दौरान रहा करते थे ) मिली, स्वामी विवेकानंद जी उस वक्त अल्मोड़ा में भारत परिभ्रम पे थे, स्वामी जी ने अपने जीवन काल में किसी सिद्ध संत महापुरुष की जीवनी अपने हाथों से नही लिखी, पर स्वामी पवहारी बाबा के ब्रम्हलीन होने से आहत विवेकानंद जी ने बंगला भाषा में स्वामी पवहारी का जीवनी लिखा , पवहारी बाबा जब अपने निर्वाण की बात अपने बड़े भाई को बताई तो वो फूट फूट के रोने लगे, गृहस्थ आश्रम के उनके बड़े भाई गंगा तिवारी ने पवहारी बाबा को बोला, जब तुम ही नही यहां रहोगे तो हम लोगों का अस्तित्व यहां क्या रह जायेगा, इस बात पे पवहारी बाबा ने अपने बड़े भाई को दो दिशा निर्देश दिए, बोले  जिन ठाकुर जी की मूर्तियों की स्थापना की गई है, उनकी नित्य पूजा_ पाठ,और समय से भोग लगाया जाए,जो भी अभ्यागत अतिथि आश्रम पे आए उनका यथोचित सेवा सम्मान किया जाय, और किसी भी परिस्थिति में किसी से कोई याचना नही किया जाए,आज पवहारी बाबा के आदेशानुसार आश्रम के संरक्षण का कार्य उनके बड़े भाई की पांचवी पीढ़ी निर्विवाद रूप से कर रही,ये स्वामी पवहारी बाबा की आदेश का प्रभाव है,फिर बात उनके निर्वाण (समाधि) की आई, भयंकर गर्मी का महीना (जेष्ठ अमावस्या की तिथि) उनके बड़े भाई ने कहा गर्मी काफी पड़ रही, भंडारा आयोजित करने के लिए जल प्रबन्ध के लिए कुछ कुएं खोदवा लिए जाय, पवहारी बाबा हस के बोले दास की सेवा में आप लोग इतने तत्पर है, दास एक निमंत्रण पत्र माता गंगा को देता है, शायद माता अपने बालक पे कृपा दृष्टि बनाएं, और निमंत्रण पत्र देने के अगली सुबह ही गंगा मां जो की आश्रम से काफ़ी दूरी पे बहा करती थी, आश्रम के सामने की नाले में आके बहने लगी, (ये कोई किवदंती नही आज भी इसका प्रमाण चाहिए तो ओपियम फैक्ट्री की 1898 की गजट में ये प्रमाण अंकित है, उस वक्त अंग्रेजो का शासन काल चल रहा था, चुकीं गर्मी के महीने में गंगा जी उफान पे थी, ये उस वक्त के कोतुहल का विषय बन गया, फैक्ट्री के बहुत सारे श्रमिक पवहारी बाबा के भंडारे में समलित होने के लिए आने लगे, अंग्रेज अधिकारी ने अधिक अनुपस्थित को देखते हुए,3 दिनो की छुट्टी घोषित की, कहा जो भी भंडारे में जाना चाहे जा सकता है, उसी क्रम में कहा जाता है,की भंडारे में घी कम पड़ गया, बाबा के कहने से मां गंगा का जल घी रूप में परणीत हो गया, और भंडारा निर्विवाद रूप से पूर्ण हुआ, मां गंगा की बाबा के द्वारा विदाई किए जाने के बाद मां गंगा यथावत अपने पहले के स्थान पे चली गई, अब वो वक्त आ चला जब स्वामी पवहारी बाबा अपने देह त्याग के लिए पद्मासन मुद्रा में बैठे, अपने दाहिने पैर के अंगूठे से अग्नि प्रज्वलित कर अपने शरीर को भस्मीभूत कर दिया ।।#18वी शताब्दी के सबसे महान संत गाज़ीपुर के स्वामी पवहारी बाबा हमने जितने सिद्ध संत महापुरुष को पाया उनमें से वो एक है ,(आज भी ये पुस्तक आपको रामकृष्ण मिशन से उपलब्ध हो जायेगी), स्वामी विवेकानंद ने बाबाजी को श्रद्धाजंलि अर्पित की,”…..मै उनका परम ऋणी हूँ।मैंने जीवन मे जितने श्रेष्ठ आचार्यों से प्रेम किया,उनमे से वे एक हैं”लगातार चलते समय के चक्र से जिससे दिवस रात्रि मे,सुबह संध्या मे और रात्रि पुनः दिन मे परिवर्तीत हो रही है।यहां सब कुछ सूना हो गया है,पर स्वामीजी द्वारा वर्णित ये ऊंची दिवाले आज भी खड़ी हैं। यह सूनी कुटिया आज भी यहीं है साथ विद्यमान है उन महापुरुष की पवित्र स्मृतियां वो गुफा जहा बाबाजी ने साधना किया, उनकी हस्तनिर्मित ठाकुर जी के अभूतपूर्व विग्रह और शालिग्राम की मूर्तियां, उनकी हस्तलिखित पुस्तके और बहुत सारी स्मृतियां, जिससे आर्कर्षित हो देश-विदेश के कोनों कोनों से लोग,रामकृष्ण मिशन के साधु-संत और देश विदेश के लोग जिन्होंने स्वामी विवेकानंद जी के साहित्य को पढ़ा, यहाँ खिचे चले आते हैं और अपने को स्वामी पवहारी के पावन तपस्थली गाज़ीपुर कुर्था आश्रम पे आके अपने आप को पवित्र कर जाते हैं !!

 

 

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